अष्टावक्र और राजा जनक, आध्यातमिक सम्वाद
राजा जनक को आत्मा तत्व जानने और नाम पाने की इच्छा थी। वे अपनी सभा में गयानी जन जिन्हे संसारी लोग गुरू कहते थे,उन्हे न्यौता अक्सर दिया करते थे।अब तक राजा जनक को कोई भी गयानी मन से गुरू बनाने के लिए नहीं प्रभावित नही कर पाया। एक दिन एक सभा में अष्टावक्र आए जो शरीर से कोढी थे। अष्टावक्र ने कहा, हे राजन मैं आत्मा त्तव को जानता हूं, आप कोई भी प्रशन मुझसे पूछे।यह सुन वहां बैठे जो स्वयं को गुरू कहते थे और आत्मा तत्व का गयान देते थे, जोर से हंसे और कहा तुम अभी कम उम्र के हो, शरीर से ठीक तरह खडे भी नही हो सकते, तुम नाम विद्या क्या जानो।यह सुन अष्टावक्र ने कहा, हे राजन जिन्हे आप गुरु समझ रहे है ये तो मोची समान है जो जूता सिल तो लेते है परन्तु जिन्हे चमडे का गयान नही।मह सुन राजा जनक चौक गये और कहा क्या तुम मेरे प्रशनो का उतर दोगे।
नाम अमोलक रत्न प्रापत करने के जिगयासु राजा जनक, बालक अष्टावक्र से पूछते हैं - हे गयानी, मैं तुम्हे सच्चे मन से प्रणाम करता हूं, कितने वर्ष से गुरू और गयान की तलब और तलाश है मुझे, अब विशवास हुआ है के तलाश खत्म होने को है। कृपा करके बताए ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है, मुक्ति कैसे प्राप्त होती है, वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है, ये सब मुझे बताएं॥१॥
श्री अष्टावक्र उत्तर देते हैं - यदि आप मुक्ति चाहते हैं तो अपने मन से विषयों जो वस्तुओं के उपभोग की इच्छा पैदा करते है, उनको विष की तरह त्याग दीजिये। इच्छा समापत होने पर सास पर काबू आ जाता है और सास पर काबू पाने से नाम पाया जा सकता है। इच्छा और सांस में समबन्ध है, यदि सांस काबू में कर ली जाए तो इच्छा स्वयं काबू में आ जाती है और यदि इच्छा काबू की जाए तो सांस पर काबू आ जाता है। किसी एक को काबू करने से दोनो पर काबू पा लिया जाता है।
सांस पर और इच्छा पर काबू पा लेने के पशचात यदि आप स्वयं को इस शरीर से अलग करके, चेतना में विश्राम करें तो तत्काल ही सुख, शांति और बंधन मुक्त अवस्था को प्राप्त होगें। यह सब साधना में नित्य सच्चे मन और शरद्या से बैठने से होगा।
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